उवेस सुल्तान खान - 2014 के चुनाव में अभी समय है – नहीं संभले तो कई मुज़फ्फरनगर बाकी हैं

2014 के चुनाव में अभी समय है – नहीं संभले तो कई मुज़फ्फरनगर बाकी हैं - उवेस सुल्तान खान

मुज़फ्फरनगर की भयावह हिंसा ने यह बात बिलकुल साफ़ कर दी है कि 2014 के चुनावों की ख़ातिर आज मानवता, शांति, सदभावना और सदियों पुराने आपसी रिश्तों को दाव पर लगाया जा चुका है और बहुत से मासूमों को इसका खामियाज़ा भुगतना है ! ऐतिहासिक रूप से मुज़फ्फरनगर, शामली, सहारनपुर, बागपत और उसके आस-पास के इलाके, 1857 के संग्राम में अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ मज़बूत किले के तौर पर जाने गए ! अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ शाह अब्दुल अज़ीज़ देहलवी (रह.) के जिहाद का फतवा जारी करने पर जिस तरह मुसलमानों, जाटों और अन्य समुदायों ने एक साथ जंग  लड़ी, वह अपने आप में अलग मिसाल है ! इन सभी का नेत्रत्व विशेष रूप से नक्शबंदी सूफी सिलसिले के बुजुर्गों ने किया था ! आज वही इलाका इस समय की सबसे क्रूरतम मानवीय त्रासदी को बरपा करने से नहीं चुका !

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 1857 के संग्राम के बाद यहाँ पर कोई बड़ी हिंसक घटना नहीं घटी ! खास तौर पर मुसलमानों और जाटों के दरम्यान ! यहाँ तक कि 1947 में जब देश का विभाजन हुआ, पूरे देश में अशांति का दौर था, खून की होली खेली जा रही थी, तब भी इस इलाके में शान्ति रही और सदभाव बना रहा ! 1992 में बाबरी मस्जिद को शहीद करने के फ़ौरन बाद देश में बहुत सी जगहों पर दंगे हुए पर इस इलाके ने अपने बुजुर्गों की रिवायत को ज़िंदा रखा !

एक बड़ा सवाल हम सभी के सामने चुनौती के तौर पर खड़ा है और पूछ रहा है कि ऐसा क्या हुआ के एक ही झटके में इतनी पुरानी विरासत से अपने आपको अलग करने में समाज के एक बड़े वर्ग ने पल भी नहीं लगाया और मानवता को शर्मिंदा कर  देने वाले मनहूस कुकर्मों को करके इसे अपने माथे पर लगा लिया ! जिस तरह की सुनियोजित हिंसा इस इलाके में हुई है, उसमें प्रशासन पूर्ण रूप से सम्मिलित रहा और दंगाइयों को कुछ जगह सक्रिय प्रोत्साहन भी दिया गया ! जिस बर्बर तरीके से लोगों को क़त्ल किया गया है, महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों के साथ जिस वेहशिपन का सुलूक क़त्ल करने से पहले किया गया, वह कातिलों की अमानवीयता को ही  ज़ाहिर करता है ! उत्तर प्रदेश में तो आये दिन दंगे हो ही रहे हैं, पर मुज़फ्फरनगर और शामली की क्रूर हिंसा जैसी हैवानियत उत्तर प्रदेश में शायद पहली बार ही हुई है !

माफ़ी चाहता हूँ, यह पूरी तरह से तुलना करने योग्य नहीं है फिर भी इंगित करना चाहूँगा ताकि समाज के संज्ञान में आये कि सोलह दिसम्बर की अमानवीय घटना में हमारी बहादुर बहन के साथ जो कुछ हुआ, उससे कहीं ज्यादा शर्मिंदगी के साथ झकझोर देने वाली बहुत सी घटनाएं इस इलाके में हमारी बहुत सी बहनों के साथ घटी हैं ! आज भी बहुत सी बहनें लापता हैं, और पुरुषवादी सोच के चलते, समाज उनकी गुमशुदगी दर्ज नहीं करा रहा है ! जो बहनें जिंदा बच गई हैं, उनका जल्द से जल्द पता कर उन्हें उनके परिवार तक सुरक्षित पहुंचाए जाने की पहल फ़ौरन की जानी चाहिए ! राष्ट्रीय महिला आयोग को विशेष रूप से इस मामले में दखल देने की आवश्यकता है ताकि दोषियों के खिलाफ सख्त कार्यवाही हो !

एक हैरान कर देने वाला तथ्य सामने आ रहा है कि दंगाइयों ने लूटमार और उस घर के लोगों को जिंदा जला देने के बाद, कुछ ही घंटों में सीमेंट से बने बहुत से मज़बूत कई मंजिला मकानों को इस प्रकार से धराशाई कर दिया गया कि मकानों का नामो निशान तक बाकी न रहा ! दंगाई अपने साथ कौनसा खतरनाक रसायन साथ लाये थे, जिससे यह काम उन्होंने अंजाम दिया ? एक बड़ी साज़िश को बेनकाब कर रहा है कि यह बिलकुल स्थानीय स्तर की आम हिंसक घटना नहीं है, इसमें बाहरी मदद शामिल रही है ! आज इन मकानों के मलबों से नमूने लिए जा रहे हैं ताकि पता चल सके कितने लोग मरे हैं और मरने वाले लोग कौन थे !

इस तरह के खतरनाक रासायनिक हथियारों का समाज के किसी भी गिरोह के पास होना देश की शांति और सुरक्षा के लिए एक बड़ा खतरा है ! केंद्र सरकार को फौरी तौर पर इसका संज्ञान लेते हुए, विशेषज्ञों से इस बात का पता लगवाना चाहिए कि किस तरह के रासायनिक हथियार इस्तेमाल किये गए, वे कहाँ से आये थे और जिस किसी के पास भी वे हों उनसे ज़ब्त कर, दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही सुनिश्चित की जाए !

राज्य की समाजवादी पार्टी की सरकार सवालों के कठघरे में है ! मुज़फ्फरनगर, शामली और उसके आस-पास में हुए नरसंहारों के लिए वो जवाबदेह ही नहीं बल्कि सीधे-सीधे ज़िम्मेदार भी है ! इसी सरकार ने जहाँ एक ओर मस्जिद की दीवार प्रशासन द्वारा गिराए जाने के एक मामले को तूल देते हुए वहां की डीएम दुर्गाशक्ति नागपाल को निलंबित कर दिया और दूसरी घटना में चौरासी कोसी  को विश्व हिन्दू परिषद् के साथ मिलकर विवादस्पद राजनीतिक रंग दे दिया, पर मुज़फ्फरनगर की हिंसा के कई दिन बीत जाने के बाद प्रधानमंत्री के दौरे को देखते हुए, ठीक एक दिन पहले विवश्तापूर्ण प्रदेश के मुख्यमंत्री ने हिंसाग्रस्त इलाकों का दौरा किया ! पर हैरानी की बात यह है कि एक-दो को छोड़, घटना के लिए किसी भी ज़िम्मेदार प्रशासनीय अधिकारी के खिलाफ अभी तक कोई कार्यवाही नहीं की गई है !

यह उसी समाजवादी पार्टी की सरकार है, जिसने सत्ता में आने पर निर्दोष मुस्लिम नौजवानों को छोड़ने की बात कही थी, जिन्हें आतंकवाद के मामलों में फर्जी तौर पर फंसाया गया है ! मगर उसकी कथनी और करनी में बहुत अंतर है ! मौलाना खालिद मुजाहिद को न्यायमूर्ति निमेश आयोग ने निर्दोष करार दिया था, पर सरकार ने छोड़ने का फैसला नहीं लिया और एक जगह से दूसरी जगह ले जाते हुए, हिरासत में ही  मौलाना खालिद मुजाहिद की ह्त्या पुलिसकर्मियों द्वारा कर दी गई ! लखनऊ में विधानसभा के बाहर न्याय पाने की आस में रिहाई मंच नामी संगठन के लोग सौ दिन से ज्यादा हुए बैठे रहे, पर प्रदेश सरकार आँख और कान बंद किये रही ! एक निर्दोष भारतीय नागरिक की हिरासत में हत्या पुलिस द्वारा ह्त्या सरकार की निगाह में शायद कोई अन्याय नहीं है ! ऐसे न जाने कितने भारतीय नागरिकों का खून इसी तरह बहाया जा रहा है !

जनता दल (एकी) के अध्यक्ष शरद यादव ने  चौरासी कोसी परिक्रमा विवाद के दौरान एक विचित्र बयान दिया ! उन्होंने बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक मसले को इस बुनयाद पर ख़ारिज किया कि देश जाति के आधार पर बंटा हुआ है, मुज़फ्फरनगर की हिंसा के बाद समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने भी इसी तरह का कुछ बयान दिया और कहा कि यह जातीय हिंसा है ! दोनों पार्टियाँ समाजवादी कुनबे से ताल्लुक रखती हैं और गाहे – बगाहे साम्प्रदायिकता को सिरे से खारिज करने की कोशिश में हैं ! इस बात में कोई दो राय नहीं कि हमारा देश बहुत से आधारों पर बंटा हुआ है, और उनमे जाति भी एक मुख्य आधार है ! साथ ही बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक मामले पर भी बहुत सी बहसें हैं ! पर इसका यह मतलब बिलकुल नहीं है कि जाति के तर्क को आड़ बनाकर, अपने आपको समाजवादी कहने वाले दोनों दल या कोई और साम्प्रदायिकता के चेहरे और चुनौती को छुपाने की कोशिश करे !

सभी राजनीतिक और गैर-राजनीतिक पार्टियों और व्यक्तियों को समझ लेना चाहिए जो फासीवादियों के साथ मिल बैठें हैं वे भले साम्प्रदायिकता को किसी भी तरह से छुपाने या नज़रअंदाज़ करने की कोशिश वे कर लें और करा लें बखूबी अपने आकाओं के हुकुम से पर साम्प्रदायिकता को आज भी इस देश का आम जन मानस अपने अर्थों और शब्दों में चुनौती के रूप में ही आंकता है ! यह भी उन्हें और उन जैसे सेकुलरिज्म का मुखौटा पहने हुए लोगों को समझ लेना चाहिए कि उनकी भी षड्यंत्रकारी भूमिका को लोग बारीकी से समझ रहे हैं !

इस जनसंहार के लिए युपीए सरकार भी अपनी ज़िम्मेदारी से मुंह नहीं चुरा सकती ! अगर सरकार ने दंगों की रोकथाम के लिए एक मज़बूत कानून बना लिया होता तो शायद यह दिन देखना नहीं पड़ता ! पर अब भी कोई देर नहीं हुई है, केंद्र सरकार को इस तरह के सुनोयोजित दंगों से निबटने और दोषियों पर सख्त कार्यवाही के लिए कानून शीर्घ बना लेना चाहिए ! 23 सितम्बर को प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक आयोजित हो रही है !

विकट परिस्थितियों को ध्यान में रखकर, इसी बैठक में प्रधानमंत्री को दंगों से निबटने के लिए संसद के आगामी सत्र से पहले एक अध्यादेश लाने का ऐलान करना चाहिए, और किसी भी कीमत पर आगामी संसदीय सत्र में दंगों से निबटने के बिल सम्बंधित विधेयक संसद के दोनों सदनों में पारित करा लेना चाहिए ! यह इसलिए और भी आवश्यक हो गया है क्यूंकि देश के संसदीय इतिहास में पहली बार प्रत्यक्ष रूप से एक फासीवादी विचारधारा के संगठन ने एक राजनीतिक पार्टी जो उसका अंग है, प्रधानमंत्री पद के लिए अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया है ! अगले साल होने वाले आम चुनावों के चलते, फासीवादी शक्तियां सुनियोजित ढंग से सक्रिय है और बहुत से नरसंहार आयोजित करने की फ़िराक में है ! मुज़फ्फरनगर में हुई बर्बरता में इन फासीवादियों का हाथ होने में कोई शक अब बाकी नहीं रहा है ! मुसलमानों और हिन्दुओं के अंदर असुरक्षा का भाव पैदा किया जा रहा है ताकि दंगों के लिए ज़मीन तैयार की जाए और चुनावी फायदे हासिल किये जाएँ !

एक मज़बूत कानून के बिना, साम्प्रदायिक फासीवादी शक्तियों से लड़ना एक बड़ी चुनौती है ! कानून में दंगों से निबटने में विफल रहे अधिकारियों पर सबसे पहले सख्त कार्यवाही होने का प्रावधान ज़रूर शामिल होना चाहिए, मुज़फ्फरनगर और शामली के नरसंहारों ने इस बात को एक बार फिर पुष्ट किया है कि प्रशासन की मदद के बिना दंगों को अंजाम नहीं दिया जा सकता है !

केंद्र और राज्य सरकारों को हिंसा पीड़ितों का पुनर्वास और न्याय जल्द से जल्द सुनिश्चित करना होगा ! आज भी प्रशासन बिना पोस्टमार्टम के बहुत से लाशों को दफनाने के लिए लोगों पर ज़ोर डाल रहा है ! बहुत सी लाशों को परिजनों के हवाले किये बिना प्रशासन गायब कर रहा है ! सरकार को इसमें शामिल अधिकारियों पर फौरी कार्यवाही करनी चाहिए !

नागरिक समाज के सभी राजनीतिक, गैर-राजनीतिक, सामाजिक, न्यायवादी, नारीवादी, गांधीवादी, जनवादी, गैर-धार्मिक और धार्मिक संगठनो को, जिनका भी मानवीय, लोकतान्त्रिक और सेक्युलर मूल्यों में विश्वास है और साम्प्रदायिकता के खिलाफ हैं, चाहिए कि आपसी शिकायतों से परे हटकर एक साझा पहल करें ! ये संगठन या समूह अपनी पहचानों, तरीकों, और दायरों में रहकर साम्प्रदायिकता के खिलाफ जो काम कर रहे हैं करें, पर उसके अतिरिक्त एक दुसरे के साथ एक संवाद ज़रूर स्थापित करें ! साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई अकेले या कुछ के साथ नहीं लड़ी जा सकती इसके लिए व्यापक साझेपन की बहुत ज़रूरत है ! 2014 को एक साझी जंग के तौर पर लड़ना ही हम सभी के लिए एक मात्र विकल्प बाकी है, 2014 से पहले अपने देश को इस हैवानी और वहशी दरिंदगी से भी बचाने की ज़िम्मेदारी हम सभी पर है ! कुछ लोगों को अभी समझ में आएगा और कुछ लोगों को समझने में वक़्त भी लगेगा, साथ ही हम में बहुत से हम जैसे दिखते ज़रूर हैं, पर वो साम्प्रदायिकता से भरे हुए हैं और हमें ध्यान रखना होगा कि वो किसी भी प्रकार के साम्प्रदायिकता का साझा विरोध करने के या आपसी संवाद के प्रस्ताव के विरुद्ध अपने आकाओं के हुकुम से मोर्चाबंदी ज़रूर करेंगे !

Edited version published in Jansatta, 21 Sept. 2013

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